लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर

सुनसान के सहचर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15534
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

सुनसान के सहचर

26

हमारे दृश्य-जीवन की अदृश्य अनुभूतियाँ


अपनी अध्यात्म साधना की दो मंजिलें २४ वर्ष में पूरी हुई। मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् के आदर्शों में व्यतिक्रम प्रायः युवावस्था में ही होता है। काम और लोभ की प्रबलता के वही दिन हैं। सो पन्द्रह वर्ष की आयु से लेकर २४ वर्षों में ४० तक पहुँचते-पहुँचते वह उफान ढल गया। कामनाएँ, वासनाएँ, तृष्णाएँ. महत्वाकांक्षाएँ प्रायः इसी आयु में आकाश-पाताल के कलावे मिलाती हैं। यह अवधि स्वाध्याय, मनन, चिन्तन से लेकर आत्मसंयम और जप-ध्यान की साधना में लग गई, इसी आयु में बहुत करके मनोविकार प्रबल रहते हैं सो आमतौर से परमार्थ प्रयोजनों के लिए ढलती आयु के व्यक्तियों को ही प्रयुक्त किया जाता है। 

उठती उम्र के लोग अर्थ व्यवस्था से लेकर सैन्य संचालन तक अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर उठाते हैं और उन्हें उठाने चाहिए। महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए इन क्षेत्रों में बहुत अवसर रहता है। सेवा कार्यों में योगदान भी नवयुवक बहुत दे सकते हैं, पर लोकमंगल के लिए नेतृत्व करने की वह अवधि नहीं है। शंकराचार्य, दयानन्द, विवेकानन्द, रामदास, मीरा, निवेदिता जैसे थोड़े ही अपवाद ऐसे हैं जिन्होंने उठती उम्र में ही लोकमंगल के नेतृत्व का भार कन्धों पर सफलतापूर्वक वहन किया हो। आमतौर से कच्ची उम्र गड़बड़ी ही फैलाती है। यश-पद की इच्छा का प्रलोभन, वासनात्मक आकर्षण के बने रहते जो सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश करते हैं वे उल्टी विकृति पैदा करते हैं। अच्छी संस्थाओं का भी सर्वनाश इसी स्तर के लोगों द्वारा होता रहता है। यों बुराई किसी आयु विशेष से बँधी नहीं रहती, पर प्रकृति की परम्परा कुछ ऐसी ही चली आती है जिसके कारण युवावस्था महत्वाकांक्षाओं की अवधि मानी गई है। ढलती उम्र के साथ-साथ स्वभावत: आदमी कुछ ढीला पड़ जाता है, तब उसकी भौतिक लालसाएँ भी ढीली पड़ जाती हैं। मरने की बात याद आने से लोक-परलोक, धर्म-कर्म भी रुचता है, इसलिए तत्त्ववेत्ताओं ने वानप्रस्थ और संन्यास के लिए उपयुक्त समय आयु के उत्तरार्द्ध को ही माना है। 

न जाने क्या रहस्य था कि हमें हमारे मार्गदर्शक ने उठती आयु में तपश्चर्या के कठोर प्रयोजन में नियोजित कर दिया और देखते-देखते उसी प्रयास में ४० साल की उम्र पूरी हुई। हो सकता है वर्चस्व और नेतृत्व के अहंकार का महत्वाकांक्षाओं और प्रलोभनों में, बह जाने का खतरा समझा गया हो। हो सकता है आन्तरिक अपरिपक्वता- आत्मिक बलिष्ठता पाये बिना कुछ बड़ा काम न बन पड़ने की आशंका की गई हो। हो सकता है महान् कार्यों के लिए अत्यन्त आवश्यक संकल्प बल, धैर्य, साहस और संतुलन न रखा गया हो। जो हो अपनी उठती आयु उस साधना क्रम में बीत गई जिसकी चर्चा कई बार कर चुके थे। 

उस अवधि में सब कुछ सामान्य चला, असामान्य एक ही था हमारा गौ घृत से अहर्निश जलने वाला अखण्ड दीपक। पूजा की कोठरी में वह निरन्तर जलता रहता। इसका वैज्ञानिक या आध्यात्मिक रहस्य क्या था? कुछ ठीक से नहीं कह सकते। गुरु सो गुरु, आदेश सो आदेश, अनुशासन सो अनुशासन, समर्पण सो समर्पण। एक बार जब ठोक-बजा लिया और समझ लिया कि इसकी नाव पर बैठने पर डूबने का खतरा नहीं है तो फिर आँख मूंदकर बैठ ही गये। फौजी सैनिक को अनुशासन प्राणों से भी अधिक प्यारा होता है। अपनी अन्धश्रद्धा कहिए या अनुशासन प्रियता या जीवन की दिशा निर्धारित कर दी गई, कार्य पद्धति जो बता दी गई उसे सर्वस्व मानकर पूरी निष्ठा और तत्परता के साथ करते चले गये। अखण्ड दीपक की साधना-कक्ष में स्थापना भी इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत आती है। मार्गदर्शक पर विश्वास किया, उसे अपने आपको सौंप दिया, तो उखाड़-पछाड़, क्रिया-तर्क में सन्देह क्यों? वह अपने से बन नहीं पड़ा। जो साधना हमें बताई गई उसमें अखण्ड दीपक का महत्त्व है, इतना बता देने पर उसकी स्थापना कर ली गई और पुरश्चरणों की पूरी अवधि तक उसे ठीक तरह जलाये रखा गया। पीछे तो यह प्राणप्रिय बन गया। 

२४ वर्ष बीत जाने पर उसे बुझाया जा सकता था, पर यह कल्पना भी ऐसी लगती है कि हमारा प्राण ही बुझ जायेगा सो उसे आजीवन चालू रखा जायेगा। हम अज्ञातवास गये थे, अब फिर जा रहे हैं, तो उसे धर्मपत्नी सँजोये रखेगी। यदि एकाकी रहे होते, पत्नी न होती तो और कुछ साधना न बन सकती थी। अखण्ड दीपक सँजोये रखना कठिन था। कर्मचारी, शिष्य या दूसरे श्रद्धालु एवं आन्तरिक दृष्टि से दुर्बल लोग ऐसी दिव्य अग्नि को सँजोये नहीं रह सकते। अखण्ड दीपक स्थापित करने वालों में से अनेकों के जलते-बुझते रहते हैं, वे नाममात्र के ही अखण्ड हैं। अपनी ज्योति अखण्ड बनी रही- इसका कारण बाह्य सतर्कता नहीं, अन्तर्निष्ठा ही समझी जानी चाहिए, जिसे अक्षुण्य रखने में हमारी धर्मपत्नी ने असाधारण योगदान दिया। 

हो सकता है अखण्ड दीपक अखण्ड यज्ञ का स्वरूप हो। धूपबत्तियों का जलाना, हवन सामग्री की, जप मन्त्रोच्चारण की और दीपक, घी होमे जाने की आवश्यकता पूरी करता हो और इस तरह अखण्ड हवन करने की कोई स्वसंचालित प्रक्रिया बन जाती हो। हो सकता है जल भरे कलश और स्थापना में कोई अग्नि-जल का संयोग रेल इंजन जैसा भाप शक्ति का सूक्ष्म प्रयोजन पूरा करता हो। हो सकता है अन्तंज्योति जगाने में इस बाह्य ज्योति से कुछ सहायता मिलती हो, जो हो अपने को इस अखण्ड ज्योति में भावनात्मक प्रकाश, अनुपम आनन्द, उल्लास से भरा-पूरा मिलता रहा। बाहर चौकी पर रखा हुआ दीपक कुछ दिन तो बाहर ही बाहर जलता दीखा, पीछे अनुभूति बदली और लगा कि हमारे अपने अन्त:करण में यही प्रकाश ज्योति ज्यों की त्यों जलती है और जिस प्रकार पूजा की कोठरी प्रकाश से आलोकित होती है वैसे ही अपना समस्त अन्तरंग इससे ज्योतिर्मय हो रहा है। शरीर, मन और आत्मा में स्थूल, सूक्ष्म और कारण कलेवर में हम जिस ज्योतिर्मयता का ध्यान करते रहे। हैं, सम्भवत: वह उस अखण्ड दीपक की ही प्रतिक्रिया रही होगी। उपासना की सारी अवधि में भावना क्षेत्र वैसे ही प्रकाश बिखेरता है। 

अपना सब कुछ प्रकाशमय है, अन्धकार के आवरण हट गये, अन्ध तमिस्रा की मोहग्रस्तता जल गई, प्रकाश पूर्ण भावनाएँ- विचारणाएँ और गतिविधियाँ शरीर और मन पर आच्छादित हैं। सर्वत्र प्रकाश का समुद्र लहलहा रहा है और हम तालाब की मछली की तरह उस ज्योति सरोवर में क्रीड़ा-कल्लोल करते, विचरण करते हैं। इन अनुभूतियों ने आत्म-बल, दिव्य-दर्शन और उल्लास को विकासमान बनाने में इतनी सहायता पहुँचाई कि जिसका कुछ उल्लेख नहीं किया जा सकता। हो सकता है यह कल्पना ही हो, पर सोचते जरूर हैं कि यदि यह अखण्ड ज्योति जलाई न गई होती तो पूजा की कोठरी के धुंधलेपन की तरह शायद अन्तरंग भी धुंधला बना होता- अब तो वह दीपक दीपावली के दीप पर्व की तरह अपनी नस-नाड़ियों में जगमगाता दीखता है। अपनी भावभरी अनुभूतियों के प्रवाह में ही जब ३३ वर्ष पूर्व पत्रिका आरम्भ की तो संसार का सर्वोत्तम नाम जो हमें प्रिय लगता था- पसन्द आता था-“अखण्ड ज्योति” रख दिया। हो सकता है उसी भावावेश में प्रतिष्ठापित पत्रिका का छोटा सा विग्रह संसार में मंगलमय प्रगति की, प्रकाश की किरणें बिखेरने में समर्थ और सफल हो सका। 

साधना के तीसरे चरण में प्रवेश करते हुए-“आत्मवत सर्वभतेष" की किरणें फूट पड़ीं। मातृवत् पर दारेषु और परद्रव्येषु लोष्ठवत् की साधना अपने काय कलेवर तक ही सीमित थी। दो आँखों में पाप आया तो तीसरी विवेक की आँखें खोलकर उसे डराकर भगा दिया। शरीर पर कड़े प्रतिबन्ध लगा दिये और वैसी परिस्थितियाँ बनने की जिनमें आशंका रहती है उनकी जड़ काट दी, तो दुष्ट व्यवहार असम्भव हो गया। मातृवत् परदारेषु की साधना बिना अड़चन के सध गई। मन ने सिर्फ आरम्भिक दिनों में ही हैरान किया। शरीर ने सदा हमारा साथ दिया। मन ने जब हार स्वीकार कर ली तो वह हताश होकर हरकतों से बाज आ गया। पीछे तो वह अपना पूरा मित्र और सहयोगी ही बन गया। स्वेच्छा से गरीबी वरण कर लेने-आवश्यकताएँ घटाकर अन्तिम बिन्दु तक ले जाने और संग्रह की भावना छोड़ने से “परद्रव्य” का आकर्षण चला गया। पेट भरने के लिए, तन ढकने के लिए जब स्व-उपार्जन ही पर्याप्त था तो “परद्रव्य” के अपहरण की बात क्यों सोची जाय? जो बचा, जो मिलासो देते बाँटते ही रहे। बाँटने और देने का चस्का जिसे लग जाता है, जो उस अनुभूति का आनन्द लेने लगता है उसे संग्रह करते बन नहीं पड़ता। फिर किस प्रयोजन के लिए परद्रव्य का पाप कमाया जाय? गरीबी का, सादगी का अपरिग्रही ब्राह्मण जीवन अपने भीतर एक असाधारण आनन्द, सन्तोष और उल्लास भरे बैठा है। इतनी अनुभूति यदि लोगों को हो सकी होती तो शायद ही किसी का मन परद्रव्य की पाप पोटली सिर पर लादने को करता। अपरिग्रही कहने भर से नहीं वरन् उसका अनुदान देने की प्रतिक्रिया अन्त:करण पर कैसी अनोखी होती है, उसे कोई कहाँ जानता है? पर अपने को तो यह दिव्य विभूतियों का भण्डार अनायास ही हाथ लग गया। 

अगले कदम बढ़ने पर तीसरी मंजिल आती है-आत्मवत् सर्व भूतेषु। अपने समान सबको देखना। कहने-सुनने में यह शब्द मामूली से लगते हैं और सामान्यतः नागरिक कर्तव्य का पालन, शिष्टाचार, सद्व्यवहार की सीमा तक पहुँच कर बात पूरी हो गई दीखती है, पर वस्तुत: इस तत्त्व ज्ञान की सीमा अति विस्तृत है। उसकी परिधि वहाँ पहुँचती है जहाँ परमात्म सत्ता के साथ घुल जाने की स्थिति आ पहुँचती है। साधना के लिए दूसरे के अन्तरंग के साथ अपना अन्तरंग जोड़ना पड़ता है और उसकी सम्वेदनाओं को अपनी सम्वेदना समझना पड़ता है। वसुधैव कुटुम्बकम् की मान्यता का यही मूर्त रूप है कि हम हर किसी को अपना मानें, अपने को दूसरों में और दूसरों को अपने में पिरोया हुआ-घुला हुआ अनुभव करें। इस अनुभूति की प्रतिक्रिया यह होती है। कि दूसरों के सुख में अपना सुख और दूसरों के दुःख में अपना दु:ख अनुभव होने लगता है। ऐसा मनुष्य अपने तक सीमित नहीं रह सकता, स्वार्थों की परिधि में आबद्ध रहना उसके लिए कठिन हो जाता है। 

दूसरों का दु:ख मिटाने और सुख बढ़ाने के प्रयास उसे बिलकुल ऐसे लगते हैं, मानों यह सब अपने नितान्त व्यक्तिगत प्रयोजन के लिए किया जा रहा है। 

संसार में अगणित व्यक्ति पुण्यात्मा और सुखी हैं, सन्मार्ग पर चलते और मानव जीवन को धन्य बनाते हुए अपना व पराया कल्याण करते हैं। यह देख-सोचकर जी को बड़ी सान्त्वना होती है और लगता है सचमच यह दुनियाँ ईश्वर ने पवित्र उद्देश्यों की पर्ति के लिए बनाई। यहाँ पुण्य और ज्ञान मौजूद है। जिसका सहारा लेकर कोई भी आनन्द-उल्लास की, शांति और सन्तोष की दिव्य उपलब्धियाँ समुचित मात्रा में प्राप्त कर सकता है। पुण्यात्मा, परोपकारी और आत्मावलम्बी व्यक्तियों का अभाव यहाँ नहीं है। वे संख्या में कम भले ही हों अपना प्रकाश तो फैलाते ही हैं और उनका अस्तित्व यह तो सिद्ध करता ही है। कि मनुष्य में देवत्व मौजूद है और उसे जो चाहे थोड़े से प्रयत्न से सजीव एवं सक्रिय कर सकता है। धरती वीर विहीन नहीं, यहाँ नर-नारायण का अस्तित्व विद्यमान है। परमात्मा कितना महान् उदार और दिव्य हो सकता है, इसका परिचय उसकी प्रतिकृति उन आत्माओं में देखी जा सकती है। जिन्होंने श्रेय पथ का अवलम्बन किया और काँटों को तलवों से रौंदते हुए लक्ष्य की ओर शान्ति, श्रद्धा एवं हिम्मत के साथ बढ़ते चले गये। मनुष्य को गौरवान्वित करने में इन महामानवों का अस्तित्व ही इस जगती को इस योग्य बनाये हुए है कि भगवान् बार-बार नर तन धारण करके अवतार लेने के लिए ललचायें। आदर्शों की दुनियाँ में विचरण करने वाले और उत्कृष्टता की गतिविधियों को अवलम्बन बनाने वाले महामानव बहिरंग में अभावग्रस्त दीखते हुए भी अन्तरंग में कितने समृद्ध और सुखी रहते हैं- यह देखकर अपना चित्त भी पुलकित होने लगा। उसकी शान्ति अपने अन्त:करण को छूने लगी। महाभारत की वह कथा अक्सरः याद आती रही, जिसमें पुण्यात्मा युधिष्ठिर के कुछ समय तक नरक में जाने पर वहाँ रहने वाले प्राणी आनन्द में विभोर हो गये थे। 

लगता था-जिन पुण्यात्माओं की स्मृति मात्र से अपने को इतना सन्तोष और प्रकाश मिलता है तो वे जाने कितनी दिव्य अनुभूतियों का अनुभव करते होंगे। 

इस कुरूप दुनियाँ में जो कुछ सौन्दर्य है वह इन पुण्यात्माओं का ही अनुदान है। असीम स्थिरता से निरन्तर प्रेत-पिशाचों जैसा हाहाकारी नृत्य करने वाले अणु-परमाणुओं से बनी-भरी इस दुनियाँ में जो स्थिरता और शक्ति है वह इन पुण्यात्माओं के द्वारा ही उत्पन्न की गई है। सर्वत्र भरे बिखरे जड़-पंचतत्त्वों में सरसता और शोभा दीखती है, उसके पीछे इन सत्पथ गामियों का प्रयत्न और पुरुषार्थ ही झाँक रहा है। प्रलोभनों और आकर्षणों के जंजाल के बन्धन काटकर जिसने सृष्टि को सुरक्षित और शोभायमान बनाने की ठानी, उनकी श्रद्धा ही धरती को धन्य बनाती रही। जिनके पुण्य प्रयास लोक-मंगल के लिए निरन्तर गतिशील रहे, इच्छा होती रही, इन नर नारायणों के दर्शन और स्मरण करके पुण्य फल पाया जाय। इच्छा होती रही, इनकी चरणरज मस्तक पर रखकर अपने को धन्य बनाया जाय। जिनने आत्मा को परमात्मा बना लिया-उन पुरुषोत्तमों में प्रत्यक्ष परमेश्वर की झाँकी करके लगता रहा, अभी भी ईश्वर साकार रूप में इस पृथ्वी पर निवास करते विचरते दीख पड़ते हैं। अपने चारों ओर इतना पुण्य परमार्थ विद्यमान दिखाई पड़ते रहना बहुत कुछ सन्तोष देता रहा और यहाँ अनन्त काल तक रहने के लिए मन करता रहा। इन पण्यात्माओं का सान्निध्य प्राप्त करने में स्वर्ग, मक्ति आदि का सबसे अधिक आनन्द पाया जा सकता है। इस सच्चाई को अनुभवों ने हस्तामलकवत् स्वयं सिद्ध करके सामने रख दिया और कठिनाईयों से भरे जीवन क्रम के बीच इसी विश्व सौन्दर्य का स्मरण कर उल्लसित रहा जा सका। 

आत्मवत् सर्वभूतेषु की यह सुखोपलब्धि एकाकी न रही। उसका दूसरा पक्ष भी सामने अड़ा रहा। संसार में दुःख कम नहीं। कष्ट और क्लेश-शोक और सन्तोष-अभाव और दारिद्र्य से अगणित व्यक्ति नारकीय यातनाएँ भोग रहे हैं। समस्याएँ, चिन्ताएँ और उलझने लोगों को खाये जा रही हैं। अन्याय और शोषण के कुचक्र में असंख्यों को बेतरह पिलना पड़ रहा है। दुर्बुद्धि ने सर्वत्र नारकीय वातावरण बना रखा है। अपराधों और पापों के दावानल में झुलसते, बिलखते, चिल्लाते, चीत्कार करते लोगों की यातनाएँ ऐसी हैं जिससे देखने वालों को रोमांच हो जाता है, फिर जिन्हें वह सब सहना पड़ता है उनका तो कहना ही क्या? सुख सुविधाओं की साधन सामग्री इस संसार में कम नहीं है, फिर भी दु:ख और दैन्य के अतिरिक्त कहीं कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। एक दूसरे को स्नेह सद्भाव का सहारा देकर व्यथा वेदनाओं से छुटकारा दिला सकते थे, प्रगति और समृद्धि की सम्भावना प्रस्तुत कर सकते थे, पर किया क्या जाये। जब मनोभूमि विकृत हो गयी, सब उल्टा सोचा और अनुचित किया जाने लगा, तो विष वृक्ष बोकर अमृत फल पाने की आशा कैसे सफल होती?

सर्वत्र फैला दु:ख दारिद्रय, शोक, सन्ताप किस प्रकार समस्त मानव प्राणियों को कितना कष्टकर हो रहा है। पतन और पाप के गर्त में लोग किस शान और तेजी से गिरते-मरते चले जा रहे हैं। यह दयनीय दृश्य देखे, सुने तो अन्तरात्मा रोने लगी। मनुष्य अपने ईश्वरीय अंश-अस्तित्व को क्यों भूल गया? उसने अपना स्वरूप और स्तर इतना क्यों गिरा दिया? यह प्रश्न निरन्तर मन में उठे पर; उत्तर कुछ न दिया। बुद्धिमानी, चतुरता, समय कुछ भी तो यहाँ कम नहीं है। लोग एक से एक बढ़कर कला-कौशल उपस्थित करते हैं और एक से एक बढ़कर चातुर्य चमत्कार का परिचय देते हैं, पर इतना क्यों नहीं समझ पाते कि दुष्टता का पल्ला पकड़कर वे जो पाने की आशा करते हैं वह मृग तृष्णा ही बनकर रह जायेगा? केवल पतन और सन्ताप ही हाथ लगेगा। मानवीय बुद्धिमत्ता में यदि एक कड़ी और जुड़ गई होती, समझदारी ने इतना निर्देश किया होता कि ईमान को साबित और सौजन्य को विकसित किए रहना मानवीय गौरव के अनुरूप और प्रगति के लिए आवश्यक है, तो इस संसार की स्थिति कुछ दूसरी ही होती। सभी सुख-शान्ति का जीवन जी रहे होते। किसी को किसी पर अविश्वास सन्देह न करना पड़ता और किसी द्वारा ठगा, सताया न जाता। तब यहाँ दुःख दारिद्रय का अता-पता भी न मिलता। सर्वत्र सुख-शान्ति की सुरभि फैली अनुभव होती। 

समझदार मनुष्य इतना नासमझ क्यों? जो पाप का फल दु:ख और पुण्य का फल सुख होता है, इतनी मोटी बात को भी मानने के लिए तैयार नहीं होता। इतिहास और अनुभव का प्रत्येक अंकन अपने गर्भ में यह छिपाये बैठा है कि अनीति अपनाकर, स्वार्थ संकीर्णता में आबद्ध रहकर, हर किसी को पतन और सन्ताप ही हाथ लगा है। उदात्त और निर्मल हुए बिना किसी ने भी शान्ति नहीं पाई है। सम्मान और उत्कर्ष की सिद्धि किसी को भी आदर्शवादी रीति-नीति अपनाये बिना नहीं मिली है। कुटिलता सात पर्दे भेद कर अपनी पोल आप खोलती है। यह हम पग-पग पर देखते हैं, फिर भी न जाने क्यों यही सोचते रहते हैं कि हम संसार की आँखों में धूल झोंक कर अपनी धूर्तता को छिपाये रहेंगे। कोई हमारी दुरभि सन्धियों की गन्ध न पा सकेगौर लुक-छिपकर आँख मिचौनी काल सदा खेला जाता रहेगा। यह सोचने वाले लोग क्यों भूल जाते हैं कि हजारों आँख से देखने, हजारों कानों से सुनने और हजारों पकड़ से पकड़ने वाला विश्वात्मा किसी की धूर्तता पर पर्दा नहीं पड़ा रहने देता, वस्तु स्थिति प्रकट होकर रहती है और दुष्टता छत पर चढ़कर अपनी कलई आप खोलती और अपनी दुरभि सन्धि आप बखानती है। सनातन सत्य और पुरातन तथ्य लोग समझ सके होते ओर अशुभ का अवलम्बन करने पर जो दुर्गति होती है उसे अनुभव कर सके होते, तो क्यों सन्मार्ग का राजपथ छोड़कर कंटकाकीर्ण कुमार्ग पर भटकते? क्यों रोते-बिलखते इस सुर दुर्लभ मानव जीवन को सड़ी हुई लाश की तरह ढोते, घसीटते?

दुर्बुद्धि का कैसा जाल-जंजाल बिखरा पड़ा है और उसमें कितने निरीह प्राणी करुण चीत्कार करते हुए फंसे हुए जकड़े पड़े हैं, यह दयनीय दुर्दशा अपने लिए मर्मान्तक पीड़ा का कारण बन गयी। आत्मवत् सर्व भतेष की साधना ने विश्व मानव की पीड़ा बना दिया। लगने लगा-मानों अपने ही पाँवों को कोई ऐंठ-मरोड़ और गला रहा हो। “सब में अपनी आत्मा पिरोई हुई है और सब अपनी आत्मा में पिरोये हुए हैं। ” गीता का यह वाक्य जहाँ तक पढ़ने-सुनने से सम्बिन्धत रहे वहाँ तक कुछ हर्ज नहीं, पर जेब वह अनुभूति की भूमिका में उतरे और अन्त:करण में प्रवेश प्राप्त करे तो स्थिति दूसरी हो जाती है। अपने अंग अवयवों का कष्ट अपने को जैसा व्यथित बेचैन करता है, अपनी स्त्री, पुत्रों की पीड़ा जैसे चित्त को विचलित करती है, ठीक वैसे ही आत्म-विस्तार की दिशा में बढ़ चलने पर लगता है कि विश्वव्यापी दुःख अपना दु:ख है और व्यथित पीड़ित की वेदना अपने को नोचती है। 

पीड़ित मानवता की-विश्वात्मा की, व्यक्ति और समाज की व्यथा वेदना अपने भीतर उठने और बेचैन करने लगी। आँख, डाढ़ और पेट के दर्द में बेचैन मनुष्य व्याकुल फिर रहा है कि किस प्रकार, किस उपाय से इस कष्ट से छुटकारा पाया जाये? क्या किया जाये? कहाँ जाया जाये? की हल-चल मन में उठती है और जो सम्भव है उसे करने के लिए क्षण भर का विलम्ब न करने की आतुरता व्यग्र होती है। अपना मन भी ठीक ऐसा ही बना रहा। दुर्घटना में हाथ-पैर टूटे बच्चे को अस्पताल ले दौड़ने की आतुरता में माँ अपने बुखार-जुकाम को भूल जाती है और बच्चे को संकट से बचाने के लिए बेचैन हो उठती है। लगभग अपनी मनोदशा ऐसी ही तब से लेकर अद्यावधि-चली आती है। अपने सुख- साधन जुटाने की फुरसत कहाँ है? विलासिता की सामग्री जहर-सी लगती है। विनोद और आराम के साधन जुटाने की बात कभी सामने आयी तो आत्म-ग्लानि ने उस क्षुद्रता को धिक्कारा, जो मरणासन्न रोगियों के प्राण बचा सकने में समर्थ पानी के एक गिलास को अपने पैर धोने की विडम्बना में बिखेरने के लिए ललचाती हैं। भूख से तड़पते प्राण त्यागने की स्थिति में पड़े हुए बालकों के मुख में जाने वाला सुनसान के सहचर ग्रास छीनकर माता कैसे अपना भरा पेट और भरे? दर्द से कराहते बालक से मुँह मोड़कर पिता ताश शतरंज का साज कैसे सजाए? ऐसा कोई निष्ठुर ही कर सकता है। आत्मवत् सर्व भूतेषु की सम्वेदना जैसे ही प्रखर हुई, निष्ठुरता उसी क्षण गल-जलकर नष्ट हो गयी। जी में केवल करुणा ही शेष रही, वही अब तक जीवन के इस अन्तिम अध्याय तक यथावत् बनी हुई है। उसमें कमी रत्ती भर नहीं, वरन् दिन-दिन बढ़ोत्तरी ही होती गयी। 

सुना है कि आत्मज्ञानी सुखी रहते हैं और चैन की नींद सोते हैं। अपने लिए ऐसा आत्म-ज्ञान अभी तक दुर्लभ ही बना हुआ है। ऐसा आत्मज्ञान कभी मिल भी सकेगा या नहीं इसमें पूरा-पूरा सन्देह है। जब तक व्यथा वेदना का अस्तित्व इस जगती में बना रहे, जब तक प्राणियों को क्लेश और कष्ट की आग में जलना पड़े, तब तक हमें भी चैन से बैठने की इच्छा नहीं। जब भी प्रार्थना का समय आया, तब भगवान् से निवेदन यही किया- हमें चैन नहीं, वह करुणा चाहिए, जो पीड़ितों की व्यथा को अपनी व्यथा समझने की अनुभूति करा सके। हमें समृद्धि नहीं, वह शक्ति चाहिए, जो आँखों से आँसू पोंछ सकने की अपनी सार्थकता सिद्ध कर सके। बस इतना ही अनुदान वरदान भगवान् से माँगा और लगा कि द्रौपदी को वस्त्र देकर उसकी लज्जा बचाने वाले भगवान् हमें करुणा की अनन्त सम्वेदनाओं से ओत-प्रोत करते चले जाते हैं। अपने को क्या सुख साधन चाहिए इसका ध्यान ही कब आया? केवल पीड़ित मानवता की व्यथा-वेदना ही रोम-रोम में समाई रही और यही सोचते रहे। कि अपने विश्वव्यापी कलेवर परिवार को सुखी बनाने के लिए क्या किया जा सकता है। जो पाया उसका एक-एक कण हमने उसी प्रयोजन के लिए खर्च किया, जिससे शोक-सन्ताप की व्यापकता हटाने और सन्तोष की साँस ले सकने की स्थिति उत्पन्न करने में थोड़ा योगदान मिल सके। 

हमारी कितनी रातें सिसकते बीती हैं, कितनी बार हम बालकों की तरह बिलख-बिलख कर, फूट-फूटकर रोये हैं। इसे कोई कहाँ जानता हैं? लोग हमें सन्त, सिद्ध, ज्ञानी मानते हैं कोई लेखक, विद्वान्, वक्ता, नेता समझते हैं, पर किसने हमारा अन्त:करण खोलकर पढ़ा समझा है। कोई उसे देख सका होता, तो मानवीय व्यथा वेदना की अनुभूतियों से करुण, कराह से हा-हाकार करती एक उद्विग्न आत्मा भर इस हड्डियों के ढाँचे में बैठी बिलखती ही दिखाई पड़ती। कहाँ तथाकथित आत्मज्ञान की निश्चिन्तता, निर्द्वन्दता और कहाँ हमारी करुण कराहों से भरी अन्तरात्मा दोनों में कोई तालमेल नहीं। सो जब सोचा यही सोचा, कि अभी वह ज्ञान जो निश्चिन्तता, एकाग्रता और समाधि सुख दिला सके। हमसे बहुत दूर है शायद वह कभी मिले भी नहीं, क्योंकि इस दर्द में जो भगवान् की झाँकी होती है। पीड़ितों के आँसू पोंछने में ही जब चैन अनुभव होता हो, तो उस निष्क्रिय मोक्ष और समाधि को प्राप्त करने के लिए कभी मन चलेगा ऐसा लगता नहीं। जिसकी इच्छा ही नहीं, वह मिला भी किसे है?

पुण्य परोपकार की दृष्टि से कभी कुछ करते बन पड़ा हो सो याद नहीं आता। ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए कोई साधन बन पड़ा हो, ऐसा स्मरण नहीं। आत्मवत् सर्व भूतेषु के आत्म-विस्तार ने सर्वत्र अपना ही आपा बिखरा दिखलाया तो वह मात्र दृष्टि दर्शन न रह गया। दूसरों की व्यथा वेदनाएँ भी देखी गयीं और वे इतनी अधिक चुभन, कसक पैदा करती रहीं कि उन पर मरहम लगाने के अतिरिक्त और कुछ सूझा ही नहीं। पुण्य करता कौन? परमार्थ के लिए फुरसत किसे थी? ईश्वर को प्रसन्न करके स्वर्ग, मुक्ति का आनन्द लेना आया किसे? विश्व-मानव की तड़पन अपनी तड़पन बन रही थी, सो पहले उसी से जूझना था। अन्य बातें तो ऐसी थीं जिनके लिए अवकाश और अवसर की प्रतीक्षा की जा सकती थी। हमारे जीवन के क्रिया-कलापों के पीछे उसके प्रयोजन को कभी कोई ढूँढ़ना चाहे, तो उसे इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि सन्त और सज्जनों की सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों का जितने क्षण स्मरण दर्शन होता रहा उतने समय चैन की साँस ली और जब जन-मानव की व्यथा वेदनाओं को सामने खड़ा पाया, तो अपनी निज की पीड़ा से अधिक कष्ट अनुभव हुआ। लोक मंगल, परमार्थ, सुधार, सेवा आदि के प्रयास कुछ यदि हमसे बन पड़े, तो उस सन्दर्भ में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि हमारी विवशता भर थी। दर्द और जलन ने क्षण भर चैन ससे न बैठने दिया, तो हम करते भी क्या? जो दर्द से ऐंठा जा रहा है वह हाथ-पैर न पटके तो क्या करे? हमारे अब तक के समस्त प्रयत्नों को लोग कुछ भी नाम दें, किसी रंग में रंगें, असलियत धारण यह है कि विश्व की आन्तरिक अनुभूति ने करुणा और सम्वेदना का रूप कर लिया और हम विश्ववेदना को आत्म वेदना मानकर उससे छुटकारा पाने के लिए बेचैन घायल की तरह प्रयत्न करते रहे। भावनाएँ इतनी उग्र रहीं कि अपना आपा तो भूल ही गया। त्याग, संयम, सादगी अपरिग्रह आदि की दृष्टि से कोई हमारे कार्यों पर नजर डाले तो उसे उतना भर समझ लेना चाहिए कि जिस ढाँचे में अपना अन्त:करण ढल गया उसमें यह नितान्त स्वाभाविक था। अपनी समृद्धि, प्रगति, सुविधा, वाहवाही हमें नापसन्द हो ऐसा कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, उन्हें हमने जानबूझ कर त्यागा, सो बात नहीं है। वस्तुत: विश्व-मानव की व्यथा अपनी वेदना बनकर इस बुरी तरह अन्त:करण पर छाई रही कि अपने बारे में कुछ सोचने करने की फुरसत ही न मिली। वह प्रसंग सर्वथा विस्मृत ही बना रहा। इस विस्मृति को कोई तपस्या, संयम कहे, तो उसकी मर्जी पर जब स्वजनों को अपनी जीवन पुस्तिका के सभी उपयोगी पृष्ठ खोलकर पढ़ा रहे हैं, तो वस्तु स्थिति बता ही देनी उचित है। 

हमारी उपासना और साधना साथ-साथ मिलकर चली हैं। परमात्मा को हमने इसलिए पुकारा कि वह प्रकाश बनकर आत्मा में प्रवेश करे और तुच्छता को महानता में बदल दे। उसकी शरण में इसलिए पहुँचे कि उस महत्ता में अपनी क्षुद्रता विलीन हो जाये, वरदान केवल यह माँगा कि हमें अपनी सहृदयता और विशालता मिले, जिसके अनुसार अपने में सबको और सबमें अपने को अनुभव किया जा सकना सम्भव हो सके। १४ महा पुरश्चरणों का तप, ध्यान, संयम सभी इसी परिधि के इर्द-गिर्द घूमते रहे हैं। '

अपनी साधनात्मक अनुभूतियों और उस मंजिल पर चलते हुए, समक्ष आये उतार-चढ़ावों की चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि यदि किसी को आत्मिक प्रगति की दिशा में चलने का प्रयत्न करना हो, तो वर्तमान परिस्थितियों में रहने वालों के लिए यह सब कैसे सम्भव हो सका है? इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हूँढ़ना हो, तो हमारी जीवन यात्रा बहुत मार्गदर्शन करे सकती है। वस्तुतः हमने एक प्रयोगात्मक जीवन जिया है। आध्यात्मिक आदर्शों का व्यावहारिक जीवन में तालमेल बिठाते हुए आन्तरिक प्रगति के पथ पर कैसे चला जा सकता है और उसमें बिना भटके कैसे सफलता पाई जा सकती है, हम ऐसे तथ्य की खोज करते हैं। और उसी के प्रयोग में अपनी चिन्तन प्रक्रिया और शारीरिक गतिविधियाँ केन्द्रित करते रहे हैं। हमारे मार्गदर्शक का इस दिशा में परा-पूरा सहयोग रहा, सो अनावश्यक जाल-जंजालों में उलझे बिना सीधे रास्ते पर सही दिशा में चलते रहने की सरसता उपलब्ध होती रही है। उसी की चर्चा इन पंक्तियों में इस उद्देश्य से कर रहे हैं कि जिन्हें मार्ग पर चलने और सुनिश्चित सफलता प्राप्त करने का प्रत्यक्ष उदाहरण ढ़ूंढने की आवश्यकता है उन्हें अनुकरण के लिए प्रमाणित आधार मिल सके। 

आत्मिक प्रगति के पथ पर एक सुनिश्चित एवं क्रमबद्ध पोजना के अनुसार चलते हुए हमने एक सीमा तक अपनी मंजिल पूरी कर ली है। और उतना आधार प्राप्त कर लिया है जिसके बल पर यह अनुभव किया जा सके कि परिश्रम निरर्थक नहीं गया, प्रयोग असफल नहीं रहा। क्या विभूतियाँ या उपलब्धियाँ प्राप्त हुई इसकी चर्चा हमारे मुँह शोभा नहीं देती। इसके जानने-सुनने और खोजने का अवसर हमारे चले जाने के बाद ही आना चाहिए। उसके इतने अधिक प्रमाण बिखरे पड़े मिलेंगे कि किसी अविश्वासी को भी यह विश्वास करने के लिए विवश किया जा सकेगा, कि न तो आत्म विद्या का विज्ञान गलत है और न उस मार्ग पर सही ढंग से चलने वाले के लिए आशाजनक सफलता प्राप्त करने में कोई कठिनाई है। इस मार्ग पर चलने वाले आत्म शान्ति आन्तरिक और दिव्य अनुभूति की परिधि में घूमने वाली अगणित उपलब्धियों से कैसे लाभान्वित हो सकते हैं? इसका प्रत्यक्ष प्रमाण ढ़ूंढने के लिए भावी शोधकर्ताओं को हमारी जीवन-प्रक्रिया बहुत ही सहायक सिद्ध होगी। समयानुसार ऐसे शोधकर्ता उन विशेषताओं और विभूतियों के अगणित प्रमाण-प्रत्यक्ष प्रमाण स्वयं ढूंढ़ निकालेंगे जो आत्मवादी-प्रभु-परायण जीवन में हमारी तरह हर किसी को उपलब्ध हो सकना सम्भव है। 

 

* * *

 

 

Sunsan Ke Sahchar - a autobiography of Sriram Sharma Acharya

इसे एक सौभाग्य, संयोग ही कहना चाहिए कि जीवन को आरम्भ से अन्त तक एक समर्थ सिद्ध पुरुष के संरक्षण में गतिशील रहने का अवसर मिल गया। उस मार्गदर्शक ने जो भी आदेश दिए वे ऐसे थे जिनमें इस अकिंचन जीवन की सफलता के साथ-साथ लोक-मंगल को महान् प्रयोजन भी जुड़ा है। 

१५ वर्ष की आयु से उनकी अप्रत्याशित अनुकम्पा बरसनी शुरू हुई। इधर से भी यह प्रयत्न हुए कि महान् गुरु के गौरव के अनुरूप शिष्य बना जाए। सो एक प्रकार से उस सत्ता के सामने आत्म समर्पण ही हो गया। कठपुतली की तरह अपनी समस्त शारीरिक और भावनात्मक क्षमताएँ उन्हीं के चरणों पर समर्पित हो गयीं। जो आदेश हुआ उसे पूरी श्रद्धा के साथ शिरोधार्य कर कार्यान्वित किया गया। अपना यही क्रम अब तक चलता रहा है। अपने अद्यावधि क्रिया-कलापों को एक कठपुतली की उछल-कूद कहा जाय तो उचित ही विशेषण होगा। 

पन्द्रह वर्ष समाप्त होने और सोलहवें में प्रवेश करते समय यह दिव्य साक्षात्कार मिलन हुआ। उसे ही विलय कहा जा सकता है। आरम्भ में २४ वर्ष तक जौ की रोटी और छाछ इन दो पदार्थों के आधार पर अखण्ड दीपक के समीप २४ गायत्री महापुरश्चरण करने की आज्ञा हुई। सो ठीक प्रकार सम्पन्न हुए। उसके बाद दस वर्ष तक धार्मिक चेतना उत्पन्न करने के लिए प्रचार, संगठन, लेखन, भाषण एवं रचनात्मक कार्यों की श्रृंखला चली। ४ हजार शाखाओं वाला गायत्री परिवार बनकर खड़ा हो गया। उन वर्षों में एक ऐसा संघ बनकर खड़ा हो गया, जिसे नवनिर्माण के लिए उपयुक्त आधारशिला कहा जा सके। चौबीस वर्ष की पुरश्चरण साधना का व्यय दस वर्ष में हो गया। अधिक ऊँची जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए नई शक्ति की आवश्यकता पड़ी। सो इसके लिए फिर आदेश हुआ कि इस शरीर को एक वर्ष तक हिमालय के उन दिव्य स्थानों में रहकर विशिष्ट साधना करनी चाहिए जहाँ अभी भी आत्म चेतना का शक्ति प्रवाह प्रवाहित होता है। अन्य आदेशों की तरह यह आदेश भी शिरोधार्य ही हो सकता था। 

सन् ५८ में एक वर्ष के लिए हिमालय तपश्चर्या के लिए प्रयाण हुआ। गंगोत्री में भगीरथ के तप-स्थान पर और उत्तरकाशी में परशुराम के तप-स्थान पर यह एक वर्ष की साधना सम्पन्न हुई। भगीरथ की तपस्या गंगा-अवतरण को और परशुराम की तपस्या दिग्विजय महापरशु प्रस्तुत कर सकी थी। नव निर्माण के महान् प्रयोजन में अपनी तपस्या के कुछ श्रद्धाबिन्दु काम आ सके तो उसे भी साधना की सफलता ही कहा जा सकेगा। 

उस एक वर्षीय तप साधना के लिए गंगोत्री जाते समय मार्ग में अनेक विचार उठते रहे। जहाँ-जहाँ रहना हुआ, वहाँ-वहाँ भी अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार मन में भाव भरी हिलोरें उठती रहीं। लिखने का व्यसन रहने से उन प्रिय अनुभूतियों को लिखा भी जाता रहा। उनमें से कुछ ऐसी थीं, जिनका रसास्वादन दूसरे करें तो लाभ उठाएँ। उन्हें अखण्ड-ज्योति में छपने भेज दिया गया, छप भी गयीं। अनेक ऐसी थीं जिन्हें प्रकट करना अपने जीवनकाल में उपयुक्त नहीं समझा गया सो नहीं छपाई गयीं। 

उन दिनों “साधक की डायरी के पृष्ठ” “सुनसान के सहचर” आदि शीर्षकों से जो लेख “अखण्ड-ज्योति” पत्रिका में छपे, वे लोगों को बहुत रुचे। बात पुरानी हो गई पर अभी लोग उन्हें पढ़ने के लिए उत्सुक थे। सो इन लेखों को पुस्तकाकार में प्रकाशित कर देना उचित समझा गया। अस्तु यह पुस्तक प्रस्तुत है। घटनाक्रम अवश्य पुराना हो गया, पर उन दिनों जो विचार अनुभूतियाँ उठतीं, वे शाश्वत हैं। उनकी उपयोगिता में समय के पीछे पड़ जाने के कारण कुछ अन्तर नहीं आया है। आशा की जानी चाहिए भावनाशील अन्त:करणों को वे अनुभूतियाँ अभी भी हमारी ही तरह स्पंदित कर सकेंगी और पुस्तक की उपयोगिता एवं सार्थकता सिद्ध हो सकेगी। 

एक विशेष लेख इसी संकलन में और है वह है-“हिमालय के हृदय का विवेचन-विश्लेषण। ” बद्रीनारायण से लेकर गंगोत्री के बीच का लगभग ४०० मील परिधि का वह स्थान है, जो प्रायः सभी देवताओं और ऋषियों का तप केन्द्र रहा है। इसे ही धरती का स्वर्ग कहा जा सकता है। स्वर्ग कथाओं के जो घटनाक्रम एवं व्यक्ति चरित्र जुड़े हैं, उनकी यदि इतिहास-भूगोल से संगति मिलाई जाये तो वे धरती पर ही सिद्ध होते हैं और उस बात में बहुत वजन मालूम पड़ता है, जिसमें इन्द्र के शासन एवं आर्ष-सभ्यता की संस्कृति का उद्गम स्थान हिमालय का उपरोक्त स्थान बताया गया है। अब वहाँ बर्फ बहुत पड़ने लगी है। ऋतु परिस्थितियों की श्रृंखला में अब वह हिमालय का हृदय असली उत्तराखण्ड इस योग्य नहीं रहा कि वहाँ आज के दुर्बल शरीरों वाला व्यक्ति निवासस्थान बना सके। इसलिए आधुनिक उत्तराखण्ड नीचे चला गया और हरिद्वार से लेकर बद्रीनारायण, गंगोत्री, गोमुख तक ही उसकी परिधि सीमित हो गयी है। 

“हिमालय के हृदय” क्षेत्र में जहाँ प्राचीन स्वर्ग की विशेषता विद्यमान है, वहाँ तपस्याओं से प्रभावित शक्तिशाली आध्यात्मिक क्षेत्र भी विद्यमान है। हमारे मार्गदर्शक वहाँ रहकर प्राचीनतम ऋषियों की इस तप संस्कारित भूमि से अनुपम शक्ति प्राप्त करते हैं। कुछ समय के लिए हमें भी उस स्थान पर रहने का सौभाग्य मिला और वे दिव्य स्थान अपने भी देखने में आये। सो इनका जितना दर्शन हो सका, उसका वर्णन अखण्ड ज्योति में प्रस्तुत किया गया था। वह लेख भी अपने ढंग का अनोखा है। उससे संसार में एक ऐसे स्थान का पता चलता है, जिसे आत्म-शक्ति का ध्रुव कहा जा सकता है। धरती के उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुवों में विशेष शक्तियाँ हैं। अध्यात्म शक्ति का एक धुव हमारी समझ में आया है। जिसमें अधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ भरी पड़ी हैं। सूक्ष्म शक्तियों की दृष्टि से भी और शरीरधारी सिद्ध पुरुषों की दृष्टि से भी। 

इस दिव्य केन्द्र की ओर लोगों का ध्यान बना रहे, इस दृष्टि से उसका परिचय तो रहना ही चाहिए, इस दृष्टि से उस जानकारी को मूल्यवान् ही कहा जा सकता है। ब्रह्मवर्चस्, शान्तिकुंज, गायत्री नगर का निर्माण उत्तराखण्ड के द्वार में करने का उद्देश्य यही रहा है। जो लोग यहाँ आते हैं, उनने असीम शान्ति प्राप्ति की है। भविष्य में उसका महत्त्व असाधारण होने जा रहा है। उन सम्भावनाओं को व्यक्त तो नहीं किया जा रहा है। अगले दिनों उनसे लोग चमत्कृत हुए बिना न रहेंगे। 

- श्रीराम शर्मा आचार्य

यात्रा-क्रम

 

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. हमारा अज्ञात वास और तप साधना का उद्देश्य
  2. हिमालय में प्रवेश : सँकरी पगडण्डी
  3. चाँदी के पहाड़
  4. पीली मक्खियाँ
  5. ठण्डे पहाड़ के गर्म सोते
  6. आलू का भालू
  7. रोते पहाड़
  8. लदी हुई बकरी
  9. प्रकृति के रुद्राभिषेक
  10. मील का पत्थर
  11. अपने और पराये
  12. स्वल्प से सन्तोष
  13. गर्जन-तर्जन करती भेरों घाटी
  14. सीधे और टेढ़े पेड़
  15. पत्तीदार साग
  16. बादलों तक जा पहुँचे
  17. जंगली सेव
  18. सँभल कर चलने वाले खच्चर
  19. गोमुख के दर्शन
  20. तपोवन का मुख्य दर्शन
  21. सुनसान की झोपड़ी
  22. सुनसान के सहचर
  23. विश्व-समाज की सदस्यता
  24. लक्ष्य पूर्ति की प्रतीक्षा
  25. हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू
  26. हमारे दृश्य-जीवन की अदृश्य अनुभूतिया

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book